
धनखड़
2022 में चुने गए थे और
उनका कार्यकाल 2027 तक था। ऐसे
में यह सवाल लाजमी
है – क्या वाकई ये सिर्फ स्वास्थ्य
कारण हैं? इससे पहले केवल दो उपराष्ट्रपति, वीवी
गिरी और कृष्णकांत, कार्यकाल
पूरा नहीं कर सके। अब
धनखड़ तीसरे नाम बन गए हैं।
-मगर
यह कोई संयोग नहीं लगता, खासकर तब जब...
-राज्यसभा
की BAC मीटिंग में गंभीर माहौल था।
-JP नड्डा और
किरेन रिजिजू जैसे वरिष्ठ नेता गैरहाजिर रहे।
और
बीजेपी सांसदों से कोरे कागज
पर हस्ताक्षर करवाए गए।
मीटिंग में
क्या
हुआ
था,
जो
इस्तीफे
का
कारण
बना?
कांग्रेस नेता सुखदेव भगत ने इस पूरे
घटनाक्रम को बिहार चुनावों
से जोड़ते हुए कहा कि यह पहले
से लिखी गई पटकथा थी।
उन्होंने
आरोप लगाया कि JP नड्डा का सदन में
दिया गया बयान – “मेरे शब्द रिकॉर्ड होंगे”
– उपराष्ट्रपति के चेयर का
अपमान था।
क्या
धनखड़ इस अपमान से
आहत थे?ध्यान देने
वाली बात यह भी है
कि धनखड़ ने इस्तीफे से
कुछ घंटे पहले तक मीटिंग्स की
अध्यक्षता की, और अचानक ही
बिना किसी अपॉइंटमेंट के राष्ट्रपति भवन
पहुंच गए।
क्या BJP के
भीतर
सबकुछ
ठीक
नहीं?
राजनाथ सिंह के दफ्तर में
उसी दिन हलचल देखी गई। सूत्र बताते हैं कि कुछ बीजेपी
सांसदों को “कोरे कागज” पर हस्ताक्षर करने
को कहा गया – यह संकेत है
कि सबकुछ सामान्य नहीं था।
धनखड़
जैसे कद्दावर नेता का यूं इस्तीफा
देना कोई सामान्य घटनाक्रम नहीं हो सकता।
सवाल
उठता है –क्या धनखड़
और
BJP नेतृत्व
के
बीच
मतभेद
बढ़
चुके
थे?
क्या
उन्हें कुछ मुद्दों पर स्वतंत्र राय
रखने की सज़ा मिली?
कांग्रेस
का दावा है कि सोमवार
दोपहर को कुछ बड़ा
हुआ था, जिससे धनखड़ को इस्तीफा देना
पड़ा। विपक्ष का सुझाव है
कि सरकार को उन्हें मनाना
चाहिए, वरना यह संवैधानिक मर्यादा
और लोकतंत्र की कमजोर होती
परंपरा का संकेत है।
धनखड़ के इस्तीफे के बाद यह
सवाल बड़ा है कि अगला
उपराष्ट्रपति कौन होगा?
क्या
यह किसी राजनीतिक समीकरण को साधने का
मौका होगा?
क्या
नीतीश कुमार का नाम इस
दौड़ में शामिल होगा – जैसा कि कुछ विश्लेषक
कयास लगा रहे हैं?
धनखड़
का इस्तीफा न सिर्फ एक
संवैधानिक पद की रिक्ति
है, बल्कि यह सवाल भी
छोड़ गया है – क्या सत्ता के केंद्र में
कोई साइलेंट स्टॉर्म है?जब स्वास्थ्य
कारणों के बहाने पीछे
कुछ गहरा होता है, तो लोकतंत्र को
जवाब माँगना ही चाहिए।
जगदीप
धनखड़ का अचानक इस्तीफा
भले ही चौंकाने वाला
हो, लेकिन यह भी सच
है कि भारतीय लोकतंत्र
की खूबी यही है – यहाँ हर सवाल उठता
है, और हर जवाब
समय के साथ सामने
आता है।
यह
घटना
हमें
यह
सोचने
पर
मजबूर
करती
है
कि
लोकतंत्र
की
ताकत
तभी
सार्थक
होती
है
जब
संवैधानिक
पदों
की
गरिमा
बनी
रहे
और
हर
जिम्मेदारी
ईमानदारी
से
निभाई
जाए।
- इससे
भविष्य के नेताओं को
एक संकेत भी मिलता है
कि नैतिक मूल्यों, गरिमापूर्ण संवाद और सार्वजनिक जिम्मेदारी
को कभी नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता।
- हो
सकता है कि आने
वाले समय में इस इस्तीफे के
पीछे के कारण साफ
हों, और देश को
एक ऐसा उपराष्ट्रपति मिले जो संविधान के
मूल्यों की नई ऊँचाइयों
को छुए।
जनता
की उम्मीदें, लोकतंत्र की शक्ति और
संविधान की आत्मा – यही
तीन स्तंभ हैं जो हर राजनीतिक
उलझन के बाद भारत
को फिर से एक नई
दिशा देते हैं।
इसलिए,
इस घटना को सिर्फ एक
राजनीतिक मोड़ न समझें – यह
अवसर है, देश के लिए, राजनीति
को और पारदर्शी, और
जिम्मेदार बनाने का।