सुप्रीम कोर्ट का बड़ा फैसला: राज्यपाल और राष्ट्रपति पर विधेयकों की स्वीकृति के लिए समयसीमा नहीं लगा सकती अदालतें, अनिश्चितकाल तक रोकना भी गलत


भारत के सुप्रीम कोर्ट ने आज एक ऐतिहासिक फैसले में स्पष्ट कर दिया कि राज्य विधानसभाओं से पारित विधेयकों पर स्वीकृति देने के लिए राज्यपाल या राष्ट्रपति पर कोई निश्चित समयसीमा (टाइमलाइन) नहीं लगाई जा सकती। साथ ही, कोर्ट ने 'डीम्ड असेंट' (मान्य स्वीकृति) की अवधारणा को पूरी तरह असंवैधानिक बताया। हालांकि, कोर्ट ने यह भी कहा कि राज्यपाल विधेयकों को अनिश्चितकाल तक लटकाकर नहीं रख सकते और सहकारी संघवाद के सिद्धांत के तहत राज्य सरकारों से संवाद बनाए रखना चाहिए।यह फैसला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत भेजे गए प्रेजिडेंशियल रेफरेंस पर आया है। पांच जजों की संविधान पीठ (सीजेआई बीआर गवई, जस्टिस सूर्य कांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदूरकर) ने सर्वसम्मति से यह राय दी।
यह फैसला राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू द्वारा अनुच्छेद 143 के तहत भेजे गए प्रेजिडेंशियल रेफरेंस पर आया है। पांच जजों की संविधान पीठ (सीजेआई बीआर गवई, जस्टिस सूर्य कांत, विक्रम नाथ, पीएस नरसिम्हा और एएस चंदूरकर) ने सर्वसम्मति से यह राय दी।
फैसले की मुख्य बातें:समयसीमा नहीं लग सकती: अनुच्छेद 200 और 201 के तहत राज्यपाल राष्ट्रपति के अधिकारों में लचीलापन है। कोर्ट द्वारा तय समयसीमा लगाना शक्ति पृथक्करण के सिद्धांत का उल्लंघन होगा।
डीम्ड असेंट असंवैधानिक: यदि समयसीमा बीत जाए तो विधेयक को स्वतः मंजूर मानने की अवधारणा संविधान में नहीं है। यह राज्यपाल/राष्ट्रपति की शक्तियों का अतिक्रमण है।
अनिश्चितकाल तक रोकना गलत: राज्यपाल विधेयकों को हमेशा के लिए रोककर नहीं रख सकते। ऐसा करना संघीय ढांचे को नुकसान पहुंचाएगा। राज्यपाल को विधानसभा से संवाद करना चाहिए और बाधा डालने वाली रवैया नहीं अपनाना चाहिए।
राज्यपाल के विकल्प: अनुच्छेद 200 के तहत राज्यपाल के पास तीन विकल्प हैंस्वीकृति देना, वापस भेजना या राष्ट्रपति के पास आरक्षित करना। वापस भेजे गए विधेयक अगर दोबारा पास हो जाए तो स्वीकृति देनी होगी।
राष्ट्रपति की भूमिका: अनुच्छेद 201 के तहत राष्ट्रपति के फैसले भी न्यायिक समीक्षा से बाहर हैं, लेकिन अनुचित देरी पर सीमित न्यायिक हस्तक्षेप संभव है।
यह पूरा मामला अप्रैल 2025 में सुप्रीम कोर्ट के एक फैसले से शुरू हुआ था, जिसमें तमिलनाडु राज्यपाल आरएन रवि द्वारा 10 विधेयकों को लंबे समय तक रोकने को गैरकानूनी बताया गया था। उस पीठ ने तीन महीने की समयसीमा तय की और कुछ विधेयकों को 'डीम्ड असेंट' दे दिया। इसके बाद राष्ट्रपति ने 14 संवैधानिक सवालों के साथ रेफरेंस भेजा।कोर्ट ने आज स्पष्ट किया कि अप्रैल वाला फैसला कुछ हिस्सों में संविधान की भावना के विपरीत था, लेकिन राज्यपालों की मनमानी पर अंकुश जरूरी है।
विशेषज्ञों का कहना है कि यह फैसला केंद्र-राज्य संबंधों को प्रभावित करेगा। विपक्षी दलों वाले राज्यों में राज्यपालों द्वारा विधेयकों को रोकने की शिकायतें आम हैं। कोर्ट ने कहा कि चुनी हुई सरकारें ही विधायी प्रक्रिया की 'ड्राइवर सीट' पर रहनी चाहिए।

 

 

 

 

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